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पौराणिक कथाएँ >> भक्त प्रहलाद

भक्त प्रहलाद

काका हरिओम्

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3937
आईएसबीएन :00000

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भक्त प्रहलाद की अलौकिक कथा....

Bhakt Prahlad a hindi book by Kaka Hariom -भक्त प्रहलाद - काका हरिओम्

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिरण्यकशिपु द्वारा घोर तप

मंदराचल पर्वत पर ‘ऊँ ब्रह्मदेवाय नमः’ मंत्र गूजने लगा। हिरण्यकशिपु अमर और अपराजित होने के लिए प्रजापति ब्रह्मा की घोर तपस्या कर रहा था। उसने देवताओं के रक्षक विष्णु और उसके भक्तों को समाप्त करने का संकल्प कर लिया था।
ब्रह्मा दैत्यराज हिरण्यकशिपु की मंशा को जानते थे। इसलिए वे विलम्ब कर रहे थे ताकि निराश होकर वह तपस्या से विमुख हो जाए। लेकिन दैत्यराज की घोर तपस्या के कारण उसके सिर से आग निकलने लगी, जिससे नदियाँ और समुद्र खौलने लगे, पृथ्वी ढगमगाने लगी, ग्रह और तारे टूटकर गिरने लगे और स्वर्ग के देवता भी जलने लगे। जब देवगणों की प्रार्थना पर ब्रह्मा जी को दैत्यराज हिरण्यकशिपु को दर्शन देने को विवश होना पड़ा। ब्रह्मा ने उसके अस्थिशेष शरीर पर अमोघ-जल छिड़का, जिससे वह पूर्ण स्वस्थ हो गया।

हिरण्यकशिपु को वरदान

ब्रह्मा जी को अपने सामने खड़े देखकर हिरण्यकशिपु अत्यंत प्रसन्न हुआ। जब ब्रह्मा जी ने उससे वर माँगने को कहा, तो वह झटपट बोला, ‘‘हे प्रभो ! आप मुझे ऐसा वर दीजिए कि मैं आपके बनाए हुए किसी भी प्राणी द्वारा-चाहे वह मनुष्य हो या पशु, देवता हो या दैत्य अथवा नागादि-भीतर-बाहर, दिन में, रात्रि में, अस्त्र-शस्त्र से, पृथ्वी या आकाश में, कहीं भी मारा न जाऊँ। युद्ध में मेरा सामना कोई न कर सके। मैं समस्त प्राणियों का सम्राट बनूँ तथा तपस्वियों और योगियों को जो अक्षय-ऐश्वर्य प्राप्त है, वही मुझे भी प्राप्त हो।’’
हिरण्यकशिपु के वचन सुनकर ब्रह्मा जी ने ‘तथास्तु’ कहा और ब्रह्म लोक चले गए।

इन्द्र द्वारा दैत्यराज की पत्नी का अपहरण


उधर, जब इन्द्र ने देखा कि दैत्यराज हिरण्यकशिपु तपस्या करने गया हुआ है, तब उसने देवताओं के साथ मिलकर उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। देवताओं से पराजित होकर सारे दैत्यगण इधर-उधर भागने लगे। जहां जिसको शरण मिली वह वहां छुप गया। देवताओं ने दैत्यपुरी को लूटकर जला दिया।

हिरण्यकशिपु की पत्नी दैत्येश्वरी कयाधू उस समय गर्भवती थी। उसके सभी अनुचर और दैत्य भाग गए थे। इन्द्र ने बलपूर्वक उसे रथ में बिठाया और अमरावती की ओर ले चला। वह विलाप करती हुई सहायता की प्रार्थना करने लगी। कयाधू ने इन्द्र को बहुत धिक्कारा और कहा, ‘‘तुम देवताओं के राजा इन्द्र हो, परस्त्री हरण करना तुम्हें शोभा नहीं देता। अगर तुम अपना हित चाहते हो तो मुझ पतिव्रता स्त्री को शीघ्र छोड़ दो।’’ यह आर्त्त-स्वर जब देवर्षि नारद के कानों में पड़ा, तो उनका कोमल हृदय द्रवित हो गया। आगे बढ़कर उन्होंने देवराज को रोका।

देवराज को देवर्षि द्वारा रोका जाना


नारद की ओर जब इन्द्र ने प्रश्न भरी दृष्टि से देखा कि वे ऐसा क्यों करना चाहते है, तो देवर्षि ने देवराज को सावधान करते हुए कहा, ‘‘देवराज ! यह आप क्या कर रहे हैं ? विजय के उन्मांद में मर्यादा का परित्याग आपको शोभा नहीं देता। क्या आप यह नहीं जानते कि किसी परायी स्त्री को बंदी बनाना ठीक नहीं है ?’’

इस पर इन्द्र ने कहा, ‘‘इसका पति हम देवताओं का शत्रु है, इसलिए मैं कयाधू को बंदी बनाकर रखना चाहता हूँ ताकि इसके गर्भ में पल रहे दैत्यवंश के उत्तराधिकारी को समाप्त कर दैत्यकुल के बीज को ही हमेशा के लिए समाप्त कर दूँ।’’ इन्द्र के इस तर्क पर मुस्कुराते हुए नारद बोले, ‘‘हे इन्द्र, तुम नहीं जानते कि इसके गर्भ में जो बालक है, वह चिरंजीवी है। उसका वध तुम्हारी शक्ति के बाहर की बात है। उससे देवताओं को कोई भय नहीं हो सकता। बल्कि वह तुम्हारे कल्याण का कारण बनेगा। वह भगवान का परम भक्त होगा।’’
नारद की सलाह मानते हुए कयाधू को रथ से उतारकर इन्द्र वापस चले गए।

प्रह्ललाद का जन्म


हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधू को जब इन्द्र ने मुक्त कर दिया तब वह बहुत प्रसन्न हुई और उसने नारद जी के चरणों में बार-बार प्रणाम करके अपनी कृतज्ञता प्रकट की।
नारद जी ने कहा, ‘‘पुत्री तुम्हारा दैत्यपुर तो ध्वस्त हो गया है अब तुम मेरे आश्रम में चलकर तब तक सुखपूर्वक रहो, जब तक दैत्येश्वर तपस्या समाप्त करके लौट नहीं आते ।’’
कयाधू ने देवर्षि की आज्ञा स्वीकार की और उनके साथ आश्रम में निवास करने लगी। कयाधू बड़ी श्रद्धा से नारद जी की सेवा करती। नारद जी के आदेशानुसार वह भक्ति-भाव से भगवान विष्णु का पूजन करती और उनका नाम जपती। असुर सम्राट की पत्नी होती हुई भी तपस्विनी की भांति वह जीवन व्यतीत करती। अपने पुत्र की मंगल कामना के लिए वह धरती पर सोती, कठिन व्रतों का पालन करती और अपनी भूख कंद-मूल खल खाकर शांत करती। अवसर मिलने पर नारद जी उसको भक्ति, ज्ञान, वैराग्य एवं भगवान के दिव्य स्वरूप और उनके अनंत गुणों का उपदेश करते। नारद जी गर्भ में पल रहे शिशु को लक्ष्य करके इन सारे गूढ़ तत्वों का दिव्य उपदेश दिया करते थे।


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